वो माया कुछ गहरी थी
सहज सुहाती मन को लुभाती
ये प्यारे चाँद की वो आभा थी |
स्वर्ण से आती चाँदी हो जाती,
क्या तुमने देखी वो माया थी?
कंचन सोन प्रभा भानु की,
सोम रजत कैसे बन जाती!
कुछ बसंती से दिन की शीतलता,
कैसे निशा मे ढल जाती है!
चंचल सी चंद्रकला की
अटखेली में बरसती,
कुछ धुन्ध थी नभ तले,
कुछ आँखों मे खोई थी |
कुछ उड़ती चकोरी की श्वेत उड़ान में भी,
चहक उसके खुले आसमान मे होने की थी |
पॅल्को के पर्दे पर लटकी,
झिलमिल मोती सी एक माला थी,
जो पल्छिन सी झूल गयी,
माला वो किसने पिरोइ थी?
कुछ देर ठहर जो तुम जाती,
बोली वो सुंदर छाया थी,
दिखला देती ब्रह्मांड ही तुमको,
ये तो केवल ऊपरी काया थी !
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