क्या कनक चाह मैं धरूं?

Possession of gold brings mere ego. While, what these blooming buds teach one is, simplicity, compassion, and calmness.

The strength they gather from each ray of crimson sun to rise amidst the bed of thorns and the humility to realize the thorn as their own part and still spread their sweet scents across, is what is to be imbibed.

These bloomings have nothing but the satisfaction borne out of the fame they earn to cheer a million hearts!

Material wealth is nothing more but a mirage...the more one's lured, the bolder the thirst for it!





मैं कनक चाह क्या धरूं,
तुम यूं जो मुझे सजाते हो,
जो रोज़ नए हो जाते हो,
और नई प्रभा जागते।


















तुम यूं जो कायाकल्प करते हो,
और नए रंग यूं मुझे चढ़ाते हो,
मैं कनक चाह क्या धरूं,
तुम तरुण मुझे बनाते हो।










रश्मि जो तुम्हारी जननी है,
सविता गोद तुम खेले हो,
सोई फलतः तुम प्रिए,
यूं मीठी लालिमा समेटे हो|














तुम अग्नि की सी ज्वाला लिए,
अपार सशक्त मुझे बनाते हो,
तुम सामर्थ मुझमें भरते हो|
स्वयं कांटों से शोभित,
साहस की प्रेरणा भी तो देते हो|
मैं कनक चाह क्या धरूं,
मुझे विनम्र भी तुम्हीं बनाते हो।


तुम सघन प्रवाह मानसपटल पर, जुनून की उफनती विद्युत धारा हो। त्याग की त्रिशाला हो, गंगा की निर्मलता लिए, हां वही साश्वात जलधारा हो। मैं कनक चाह क्या धरूं, तुम निस्वार्थ तृप्ति के भी दाता हो।









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